रात की इबारत मिट ही जाती है
वक्त के आगे किसकी चल पाती है
यादें धीरे धीरे दर्द पहुचती हैं
जिंदगी लोग पहचानने मे निकल जाती है
कभी कभी हमारी जिंदगी हमें तरसती है
पर दिल की जुबान कहाँ दूजो तक पहुच पाती है
हर पल अहक या मुश्कान बिखर जाती है
जिसके कारण गज़ल गज़ल कहलाती है
तू अभी छोटा है तुझको समझ नही आती है
मानस भारद्वाज
10 comments:
kya likha hai bhai ek dam jabardast......
maja aa gaya padkar....
very nice ....keep it up.
किस मुखोटे मे किसका चेहरा है खुदा जाने
जिंदगी लोग पहचानने मे निकल जाती है...........
बहुत सटीक पंक्तियाँ हैं और पूरी ग़ज़ल तो
अपने आप में काफी अर्थपूर्ण है,बहुत बेहतरीन ग़ज़ल
बाप रे बाप ..इतनी सुन्दर इतनी कोमल..सच..क्य कहू अब...............
इस कविता के लिए बधाइयां
आप भी अन्य ब्लाग्स पर घूम लिया करिए उन पर टिप्पणी करना भी
आपसी प्रोत्साहन का तरीका है इस से संपर्क और एक रिश्ता बनता है
ब्लॉगर के लिए सबसे अधिक संतुष्टि टिप्पणियों से ही होता है....!
अच्छा लिखा है, पर वर्तनी कहीं-कहीं अशुद्ध है..
aap toh kahi jaate nahi ho ..hamase hee puchhte rahte ho..thik hai
ye sahi hai bhai , this is your best , i moved by words, maza aa gaya... last lines are the punch lines .. ustaad ho yaar...
good . write more .....
regards
vijay
कील की तरह मुझमे समाती हैं
यादें धीरे धीरे दर्द पहुचती हैं
किस मुखोटे मे किसका चेहरा है खुदा जाने
जिंदगी लोग पहचानने मे निकल जाती है
Ye lines are the best , man ko choo gayi hai .manas
keep it up .........[deepika][deepa]
Post a Comment