मुझपे हो के कायल कभी भी ना समझ पाएगी
मेरी बातों को वो जाहिल कभी भी ना समझ पाएगी
गिरेगी ओंस जब सुर्ख सुनहरी रातों में चंदा से
तब क्यों बजती है पायल कभी भी ना समझ पाएगी
बरसती आँखों को मौसम का बदलना मान लेगी
क्यों टपकती है छागल कभी भी ना समझ पाएगी
लकीरों को हाथों में अपने टक टक देखा करेगी
कब पीले होते हैं चावल कभी भी ना समझ पाएगी
बच्ची थी वो , बच्ची है , बच्ची ही रहेगी
क्यों शर्माती है पागल कभी भी ना समझ पाएगी
बहन मेरी उसमे , माँ मेरी , मेरी बेटी भी रहती है
आईने में अपना हासिल कभी भी ना समझ पाएगी
मानस भारद्वाज
Saturday, August 21, 2010
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6 comments:
bahut badiya kavita hai...
आप बहुत ही शानदार कविताए लिखते हैं..शुभकामनाएं...
Manaaaas! I miss you, Lion! I hope you still remember me... you convinced me to sign up at orkut in 2008 so we'd communicate easily hahaha. then i went to the nunnery
btw my email now is deecheelee@hotmail.com
बहुत खूब..
bhot sundar.
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