Tuesday, July 4, 2017

जब गाय के नाम पर
लोगों को मारा जा रहा था
तब मेरे साथी खामोश थे
वो कला में तल्लीन थे
वो आपस में विलीन थे
वो इस दंभ में जी रहे थे
कि वो कलाकार हैं
राजनीति उनका काम नहीं

वो आवाज़ नहीं उठा रहे थे
क्योंकि उनके अपने छोटे छोटे फायदे थे
किसी को अपनी गाडी की emi भरनी थी
किसी को अगले साल नई गाडी लेनी थी
किसी को मोबाइल का नया ब्रांड चाहिए था
किसी को और महँगी शराब चाहिए थी
वो खुश थे कि उनके पास कला है

वो सुंदर तस्वीरें ले रहे थे
वो भददे जोक्स पर हंस रहे थे
वो महंगे होटल में खाना खा रहे थे
वो सेक्स की दवाइयां खरीद रहे थे
वो फ्री में इन्टरनेट चला रहे थे
वो बढ़िया फिल्मे देख रहे थे
वो तेज़ ताल के गाने सुन रहे थे
वो तेज़ गाडी दौड़ा रहे थे
वो न जाने क्या क्या कर रहे थे

उनको लगता था वो , वो बोल रहे हैं
जो वो चाहते हैं !
हालाँकि वो बहुत सोच समझ के बोल रहे थे
वो हर शब्द को तौल रहे थे , कि इससे
उनके invisible आका को ख़ुशी होगी या नहीं
उनको लगता था आका की ख़ुशी से उनकी
emi चलती रहेगी और
मोबाइल का नया हैंडसेट आता रहेगा 

उन्होंने मोबाइल के हैंडसेट के लिए
अपने आप को रिमोट बना लिया 
और किसी के हाथ के द्वारा उनकी
उन बटनों को दबाया गया
जिनको छूना अप्राक्रतिक .....
खैर छोडिये ...
रुकिए छोड़ने से पहले ये सुन लीजिये
वो अब एक ऐसे टीवी को चला रहे हैं
जिसमे सत्य के सिवा सब कुछ
प्रत्यक्ष है ...
खैर ...
सत्य को कहने का उनने ठेका नहीं लिया है
वो खुश हैं कि वो ठेके पे जा पा रहे हैं
और टिक पा रहे हैं ...

राजनीति उनका काम नहीं है
वो राजनीति के काम के हैं
हाँ वो लोग भी नाम के हैं

ये सब जब हो रहा था मुझे लगा
मैं सदियों पुराने रोम में हूँ
असल में ये जो समय है
ये असल में नहीं है
मैं यहाँ नहीं हूँ
मैं कहीं नहीं हूँ

और
अगर मैं हूँ तो मैं
सदियों पुराने रोम में हूँ
और उस स्टेडियम में बैठा हूँ
जहाँ ग्लैडिएटर का खेल चल रहा है
जनता बहता खून देख के
उन्माद में चीख रही है
जनता को और खून चाहिए
और खून चाहिए
और खून चाहिए 
इस खून का कोई अंत नहीं है

सम्राट खुश है कि उसने
जनता को ऐसे खेल में लगा दिया है
जिसमे खून भी उसी का बह रहा है
खून भी वो खुद बहा रही है
खुद को दर्द दे के कराह रही है
और इसी कराह पे
वाह वाह चिल्ला रही है

सम्राट खुश है कि उसने
जनता को ऐसे खेल में लगा दिया है
जिसमे तल्लीन हो के जनता
उससे सवाल नहीं पूछेगी
सम्राट को सवालों से डर लगता है
वो सवालों को उठने नहीं देना चाहता है

अगर सवाल उठेंगे तो सिंहासन डोलेगा
सिंहासन डोलेगा जो तू ज़ुबान खोलेगा
तू तो चुप ही रह तू क्या बोलेगा

तू emi भर

मानस भारद्वाज  

1 comment:

KIRANKUMAR SENGAL said...

bahot khu Please update ne poem